बुझा-बुझा चेहरा लिए चिंतित और उदास
मित्र सुधारक अल सुबह आए मेरे पास
आए मेरे पास पड़ा था माथे पर बल
मैंने पूछा मित्र किसलिए अब हो बेकल
जीत गई सरकार झूम कर नाचो-गाओ
अमर सिंह के साथ मुलायम चारा खाओ
इतना सुनते ही हुए मित्र क्रोध से लाल
पीले चेहरे पर नजर आने लगा मलाल
आने लगा मलाल , जोर देकर वह बोले
मक्कारों के साथ मुझे क्यों नाहक तोले
नगरवधू की भांति नहीं हरगिज नाचूंगा
नमकहरामों का कच्चा चिट्ठा बांचूंगा
लख कर उनका आत्मबल हुआ मुझे संतोष
सोचा वाजिब है बहुत सचमुच उनका रोष
सचमुच उनका रोष रंग लाएगा इक दिन
लेंगे लोग हिसाब बेइमानों से गिन-गिन
दिव्यदृष्टि लेकिन जब तक वह दिन आएगा
नैतिकता के बाल कौन तब गिन पाएगा ?
बुधवार, 23 जुलाई 2008
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1 टिप्पणी:
बहुत तीखा व सही व्यंग्य कसा है।अच्छा लगा।
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