इंसां की खातिर बने दुनिया के सब धर्म
मेल-मुहब्बत-प्यार ही मानवता का मर्म
मानवता का मर्म, शर्म आंखों में रखिए
निर्दोषों का खून नहीं बेमतलब चखिए
दिव्यदृष्टि यह बात जिहादी समझें शातिर
दुनिया के सब धर्म बने इंसां की खातिर
पढ़ना-लिखना छोड़ जो थाम रहे बंदूक
वही तालिबे इल्म सब करते भारी चूक
करते भारी चूक, इल्म से रहते गाफिल
इसीलिए गुमराही में बन जाते कातिल
दिव्यदृष्टि वे फौरन छोड़ें खून बहाना
पड़े जिंदगी भर वरना उनको पछताना
सोमवार, 28 जुलाई 2008
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4 टिप्पणियां:
achchi rachna hai
bhut sahi baat kahi hai aapne apni rachana me. bhut badhiya. likhte rhe.
aap apna word verification hata le taki humko tipani dene me aasani ho.
इंसां की खातिर बने दुनिया के सब धर्म ,इस लिये की इंसा इंसा बन कर रहे , लेकिन हो इस से उलटा रहा हे, धर्म के कारण इंसा हेवान वनता जा रहा हे.
धन्यवाद एक सुन्दर कविता के लिये
एक सुन्दर कविता के लिये धन्यवाद.
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