सपने में कल रात सुभद्रा जी को जब मैंने देखा
थी मित्रो मुख मंडल पर मायूसी की मोटी रेखा
फिर भी दे आशीष लगीं कहने कैसे जी लेते हो
बुन्देलों के दुख पर होंठों को कैसे सी लेते हो?
झांसी वाली रानी के 'वंशज' अब भूखे मरते हैं
दीन-हीन दयनीय दशा में 'पत्तल रूखे' चरते हैं
हाथ जोड़ कर बोला मैं देवी सचमुच शर्मिन्दा हूं
कहने को तो हूं स्वतंत्र पर 'पराधीन' बाशिन्दा हूं
बावजूद इसके मैं माता भरसक कलम चलाऊंगा
सत्ता के गलियारों को नित 'निंदा' से दहलाऊंगा
व्यर्थ न जाने दूंगा हरगिज रानी की कुरबानी को
फैलाऊंगा जन-मानस में उनकी शौर्य कहानी को
दिव्यदृष्टि उनके सपनों की बगिया फिर लहराएगी
जिसमें 'मक्कारों' की मैली ध्वजा नहीं फहराएगी
बुधवार, 9 सितंबर 2009
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